व्यंग्य
● रवि उपाध्याय
मित्रों, साठ के दशक में एक लोकप्रिय फ़िल्म आई थी जिसका नाम है जंगली।यह फ़िल्म युवाओं में उतनी ही लोकप्रिय हुई थी जैसे आजकल सियासी हलकों में सत्ता के सिंहासन को कब्जियाने लिए मुफ्त की रेवडियां बांटने का फैशन चल रहा है। कुछ महीनों पहले देश में लोकसभा चुनाव में देश की सबसे पुरानी पॉलिटिकल पार्टी ने इसका खूब उपयोग किया और सांप सीढ़ी में मुद्रित 100 के अंक पर जा कर सांप के मुंह में समाने से बाल बाल बच गई। ये सांप प्रतीक है देश, लोकतंत्र चरित्र और इंसानियत की बरबादी का।ऐसा ही प्रयोग अन्य राज्यों के चुनाव के समय किया गया है।
मुफ्त की रेवड़ी बांटने का जो प्रदेश इस समय जो प्रदेश आर्थिक रूप से जो बदहाली का शिकार हुआ है वह कांग्रेस शासित राज्य है हिमाचल प्रदेश जो एक समय अपने भौगोलिक संपन्नता के लिए जाना जाता था। यही वह राज्य है जिसके एक मुख्यमंत्री नोटों के बिस्तर पर सुख की निंद्रा लिया करते थे। दूसरे मुख्यमंत्री अपने सेब फलों के बागानों से कई सैकड़ों करोडों के मालिक बन बैठे थे।
1961 में एक फ़िल्म आई थी ‘जंगली’ शम्मी कपूर और सायरा बानो स्टारर इस फ़िल्म का एक गाना है ‘अई अई या करूँ मैं क्या, खो गया दिल मेरा सूकू-सूकू’। इसी प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री हैं सुखविंदर सिंह सुक्खू। प्रदेश के विधानसभा चुनाव में राज्य की आर्थिक हैसियत से बढ़ चढ़ कर किए वायदों के चलते मुख्यमंत्री सुक्खू का दिल भी गा रहा है अई अई या करूं मैं क्या दिल मेरा बोले सूकू-सूकू। उन्होंने घोषणा की है कि वे और उनके संगी साथी अगले दो महीने तक लाखों रुपए मिलने वाली तनख्वाह प्रदेश की स्थिति सुधरने तक नहीं लेंगे। यानि तनख्वाह छोड़ेंगे नहीं वसूलेंगे जरूर। काहे की सेवा कोई मुफ्त जनसेवा करता है क्या।
सबसे पहले देश बर्बाद करने वाली फ्रीबी अथवा मुफ्त की रेवड़ी बांटने की इस तिकड़म का प्रयोग उन लोगों ने किया जो देश की सियासत को पाक साफ करने के लिए आए थे और उन्होंने दिल्ली समेत पूरे देश के नागरिकों के लालची मानस को बेनकाब कर दिल्ली और पंजाब के सिंहासन पर कब्जा कर के बैठ गए। वे टोपी पहन कर आए थे पर जनता को टोपी पहना कर 50 करोड़ के बंगले में किलोल कर रहे हैं। उनका यह कृत्य चंद्रशेखर आजाद, विपिन चंद बोस, भगतसिंह, तिलक जैसे शहीदों के सपनों और आदर्शों की हत्या करने जैसा रहा है। अंग्रेजों को भी शायद एहसास नहीं रहा होगा कि हिंदुस्तानी इतना लालची होगा कि चंद रुपयों पर बिक जाएगा। अन्यथा वे आज तक मां भारती पर काबिज होते। शायद उनका चरित्र आज के नेताओं से बेहतर था। चारित्रिक रूप से देश के मौजूदा नेताओं की तरह गिरे हुए नहीं थे।
इसी तरह का खटाखट का प्रयोग देश के उत्तर दिशा में स्थित हिमाचल प्रदेश में किया गया। उसी के चलते आज इस राज्य की सांसें आर्थिक रूप से घुट रहीं हैं। वहां के मुख्यमंत्री इतने परेशान हैं कि उन्होंने अपनी और अपने मंत्रियों की लाखों रुपए महीने मिलने वाली लाखों रुपये की मोटी पगार दो महीने तक नहीं लेने की घोषणा कर बहुत बड़ा त्याग किया है। वैसे भी हमारे देश के नेताओं की त्याग की भावना से हमारा सियासी इतिहास भरा पड़ा है। नेताओं द्वारा आजादी से पहले और बाद तक त्याग का एक लंबा इतिहास रहा है। आजादी के पहले देश का बड़े भू भाग का त्याग किया और उसके बाद भी यह क्रम जारी रहा। कभी पाक अधिकृत कश्मीर छोड़ा तो कभी सिया चीन। तो हिमाचल प्रदेश की सरकार का यह दो महीने की तनख्वाह को पेंडिंग रखने वाला त्याग भी इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे दो महीने की पगार छोड़ देंगे। कतई नहीं दो महीने बाद फिर से वसूल लेंगे। वसूलें नहीं तो बेचारे अपना गुजारा भला कैसे करेंगे ? उनके घर का चूल्हा कैसे जलेगा।
यह क्या कम नहीं है कि उन्होंने अपने राज्य के राजस्व(अपनी भी) की वृद्धि के लिए दिल्ली सरकार जैसी कोई तिकड़म नहीं लगाई । शोले की बसंती का यह डायलॉग तो शायद याद होगा ही, कि घोड़ा घांस से यारी करेगा तो फिर खाएगा क्या ? बिहार के लाल ने भी घांस या चारा पर भला कोई रहम किया था क्या ? नेता तो सियासत और सरकार में आता ही चारागाह देख कर है। इन दिनों सियासत में यह अच्छी बात हुई है कि नेता पहले पार्टी को मोटा चंदा खिलाता है,टिकट पाता है और फिर जनता को खुश हो कर दारू, साड़ी गिफ्ट कर के वोट कबाड़ता है और फिर अगले चुनाव के लिए ‘श्रम’ करता है। हमारे नेता कितने दयालु और सेवा भावी है ये देख और सुनकर मन गदगद हो जाता है। लोकतंत्र चिरायु हो। नेता चिरायु और चिरंजीवी भव: । जनता क्या है दिन दूनी रात चार गुनी रफ़्तार से बढ़ रही है। कोई चिंता नहीं यहां की जमीन कम पड़ी तो अतिरिक्त जनता को चांद या मंगल ग्रह पर शिफ्ट कर देंगे। इसरो का यान दोनों जगह पहुंच गया है।
( लेखक व्यंग्यकार एवं राजनीतिक समीक्षक हैं )
30082024