मुखौटे से कलाकारों ने परंपराओं को किया पेश
कलाकारों ने परंपराओं एवं अनुशासन को दर्शाते मुखौटा नृत्यों की दी प्रस्तुति
7 राज्यों के साथ 8 देशों के मुखौटे एवं नृत्यों का हो रहा प्रदर्शन
भोपाल। जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी द्वारा मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय में आज 27 से 29 सितंबर तक दोपहर 02 बजे से कलाओं में मुखौटे के उपयोग आधारित प्रतिरूप समारोह का आयोजन किया गया है, जिसमें प्रदेश के साथ-साथ अन्य 10 राज्यों के ऐसे नृत्यों की प्रस्तुति दी जा रही है, जिनमें मुखौटा का उपयोग किया जाता है। समारोह के दूसरे दिन शुरूआत जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी द्वारा कलाकारों के स्वागत से की गई। इसके साथ ही समारोह में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय मुखौटा आधारित प्रदर्शनी प्रतिरूप हिमालय विश्व संग्रहालय, सिक्किम के सहयोग से प्रदर्शित की गई, जिसमें भारत के 7 राज्यों सहित 8 देशों के कलाओं में मुखौटे प्रदर्शित किये गये हैं। प्रदर्शनी में ऐसे लगभग 100 मुखैटे हैं, जो भारत सहित सहित नेपाल, भूटान, तिब्बत, बांग्लादेश, फिजी, मलेशिया, श्रीलंका और इंडोनेशिया एवं अन्य देशों के मुखौटे प्रदर्शित किए गए हैं। इसके साथ ही समारोह में सुस्वादु व्यंजन भी उपलब्ध है।
तीन दिवसीय समारोह में 28 अक्टूबर, 2024 को निशानथ के. एम. एवं साथी, केरल द्वारा थैय्यम नृत्य प्रस्तुत किया गया। थैय्यम केरल का पारंपरिक लोक नृत्य है। उत्तरी केरल का भक्ति नृत्य भी माना जाता है। केरल में वर्ष में भर 25 से अधिक नृत्यों का प्रदर्शन किया जाता है। प्रति वर्ष अक्टूबर माह में उत्तरी केरल में फसल कटाई के बाद घरों में थैय्यम नृत्य किया जाता है और भगवान को नृत्य के माध्यम से धन्यवाद ज्ञापित किया जाता है।
वहीं पवनभाई रामूभाई बागुल एवं साथी, गुजरात द्वारा भवाड़ा नृत्य की प्रस्तुति दी गई। डांगी जनजातीय द्वारा किये जाने वाले भवाड़ा नृत्य का अर्थ है मुखौटा पहनकर किया जाने वाला नृत्य। यह एक प्रकार की धार्मिक मान्यता है, जो किसी के सामने आई बाधा दुःख को दूर करने के लिए की जाती है। अखातीज से पहले अप्रैल में माह में विभिन्न देवताओं और असुरों के मुखौटे पहनकर भवाड़ा नृत्य किया जाता है। ग्रामीण किसान माताजी की मान्यता मांगते हैं और ग्राम में तीन या पांच साल तक भवाड़ा रखने की मान्यता मांगते हैं। अच्छी फसल की कामना के लिए, संतान प्राप्ती के लिये ग्रामीण भवाड़ा नृत्य आयोजित कराता है। ऐसी मान्यता न केवल डांगी जनजातियों में है, बल्कि पूरे गुजरात में प्रचलित रही है। नृत्य में देवी-देवताओं और असुरों मुखौटे का उपयोग किया जाता है।
गौरांग नायक एवं साथी, उड़ीसा द्वारा साही जाता की प्रस्तुति दी। लोक नृत्य में जात्रा भारत के पूर्वी क्षेत्र का लोक कलामंच का एक लोकप्रिय रूप है। यह कई व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाला एक नाट्य अभिनय है जिसमें संगीत, अभिनय,गायन और नाटकीय वाद-विवाद होता है। विशेष रूप से यह लोकनाटक बंगाल और उड़ीसा में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। धार्मिक रैली एवं अनुष्ठानों में साही जाता नृत्य का प्रदर्शन होता है, जिसमें कलाकार भगवान श्रीगणेण, नरसिंह एवं देवी के मुखौटों का उपयोग कर नृत्य में सहभागिता करता है।
छबिलदास विष्णु गवली एवं साथी, महाराष्ट्र द्वारा बोहड़ा नृत्य की प्रस्तुति दी गई। महाराष्ट्र में कोकणा जनसमुदाय द्वारा किया जाने पारंपरिक लोक नृत्य भवाड़ा अक्षय तृतीया के बाद किया जाता है। इसे महाराष्ट्र में “बोहाडा” लोक नृत्य के नाम से भी जाना जाता है। देवी- देवताओं की वेशभूषा एवं पशु पक्षी, दैत्य, वेताल, निसर्ग देवता, आदि के मुखौटा पहनकर एवं शहनाई, सुर, संबल, थाली, प्रमुख वाद्य यंत्रों का उपयोग कर भवाड़ा नृत्य प्रस्तुत किया जाता है।
पौराणिक ढोल वादन भैरव नृत्य जागरी संस्कृति कला मंच समिति, उत्तराखंड द्वारा रम्माण की प्रस्तुति दी गई। “रम्माण” चमोली जिले के सलूड़ गांव में प्रतिवर्ष अप्रैल में आयोजित होने वाला उत्सव है। रम्माण एक विविध कार्यक्रम, पूजा और अनुष्ठानों की एक शृंखला है, जिसमें परम्परागत पूजा-अनुष्ठान तथा मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। इसके माध्यम से भूम्याल देवता की पूजा एवं पूर्वजों और ग्राम देवताओं को पूजा जाता है। रम्माण में भूमि क्षेत्रपाल की पूजा अर्चना और 18 पत्तर का नृत्य और 18 तालों पर राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान का नृत्य होता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन यूनेस्को द्वारा साल 2009 में इस रम्माण को विश्व की सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा दिया गया था। पारंपरिक ढोल-दमाऊं की थाप पर मोर-मोरनी नृत्य, बण्या-बाणियांण, ख्यालरी, माल नृत्य रोमांचित करने वाला होता है और कुरजोगी सबका मनोरंजन करता है। अंत मे भूमि क्षेत्रपाल देवता अवतरित होकर 1 साल तक के लिए अपने मूल स्थान पर विराजित हो गए। रम्माण 500 वर्ष से भी ज्यादा पुरानी परम्परा है।
अगले क्रम में सृष्टिधर महतो एवं साथी, कोलकाता द्वारा पुरूलिया छऊ की प्रस्तुति दी गई। छऊ नृत्य पूर्वी भारत की एक परंपरा है जिसमें महाभारत और रामायण, स्थानीय लोकगीत और अमूर्त विषयों सहित महाकाव्यों के प्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है। छऊ नृत्य क्षेत्रीय त्योहारों, विशेष रूप से वसंत में मनाये जाने वाले त्योहार एवं चैत्र पर्व से जुड़ा है। यह नृत्य रात में खुली जगह में पारंपरिक और लोक धुनों पर किया जाता है। इसमें मोहरी और शहनाई का उपयोग किया जाता है। विभिन्न प्रकार के ढोल की गूंजती हुई ढोल की थाप संगीत समूह पर नृत्य करते हुए कथानक प्रस्तुत किया जाता है।
जोगिंदर सिंह एवं साथी, हिमाचल प्रदेश द्वारा डग्याली नृत्य की प्रस्तुति दी गई। इस नृत्य का सम्बन्ध कृष्ण जन्म से माना गया है। डग्याली नृत्य कृष्ण की बाल-लीला से जुड़ा माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि कंस ने कृष्ण को ढूंढने के लिए कई पिशाच- राक्षस तथा तांत्रिक भेजे थे, जिन्हें बाल लीलाओं की अठखेलियां करते भगवान कृष्ण ने संहारा। उन सभी पिशाचों-राक्षसों को सिरमौर के हाटी समुदाय के लोगों ने डग्याली की संज्ञा दी। लोक गाथाओं में वर्णन मिलता है कि संहार करने के बाद श्रीकृष्ण जी से वर्ष में मात्र दो रातों को नृत्य करने की आज्ञा प्राप्त की और श्रीकृष्ण ने इन डग्यालियों को दो रातें नृत्य करने की आज्ञा दी। तभी से हाटी समुदाय के लोग इस नृत्य को करते हैं।
इसके बाद छबी लाल प्रधान एवं साथी, सिक्किम द्वारा बज्रयोगिनी नृत्य की प्रस्तुति दी गई। बज्रयोगिनी नेवार समुदाय की चार देवियों में से एक हैं, जो योग क्रियाओं की देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। बज्रयोगिनी नृत्य नेवार समुदाय के विभिन्न नृत्यों में से यह एक अनुशासन का नृत्य है और यह नेवार समुदाय का प्राचीन शास्त्रीय नृत्य भी माना जाता है। बज्रयोगिनी नृत्य प्रतीकात्मक हाथ की गतिविधियों एवं चेहरे के हाव-भाव से भरपूर और लाल पोशाक धारण कर नर्तक प्रस्तुति देता है।
वहीं चाउ सरथाम नामचूम (Chow saratham namchoom) एवं साथी, अरूणाचल प्रदेश द्वारा खामटी (खामती) जनजाति का पक्षी नृत्य प्रस्तुत किया गया। कॉक- फाइट नृत्य को स्थानीय बोलचाल में ‘का-कांग तू-काई’ के नाम से भी जाना जाता खामटी जनजाति के कलाकारों ने पक्षियों के प्रति जागरूकता एवं उन्हें संरक्षित करने के लिए पक्षी नृत्य तैयार किया। यह अरुणाचल प्रदेश में ताई खामती जनजाति के सबसे लोकप्रिय नृत्यों में से एक है। इसमें पुरुष कलाकार द्वारा पक्षी का मुखौटा एवं हेडगियर का उपयोग किया जाता है। ड्रम (कोंगपाट), झांझ (पैसेंग) एवं अन्य वाद्य यंत्र के माध्यम से इसे प्रस्तुत किया जाता है।
29 अक्तूबर को इन नृत्यों का प्रदर्शन
सांस्कृतिक प्रस्तुतियों अंतर्गत आज गौरांग नायक एवं साथी, उड़ीसा द्वारा साही जाता, जोगिंदर सिंह एवं साथी, हिमाचल प्रदेश द्वारा सिंहटू नृत्य, छबी लाल प्रधान एवं साथी, सिक्किम द्वारा लाखे एवं बज्रयोगिनी नृत्य, चाउ सरथाम नामचूम (Chow saratham namchoom) एवं साथी द्वारा हिरण नृत्य, पौराणिक ढोल वादन भैरव नृत्य जागरी संस्कृति कला मंच समिति, उत्तराखंड द्वारा रम्माण एवं सृष्टिधर महतो एवं साथी, कोलकाता द्वारा शुम्भ-निशुम्भ वध, पंडित राम एवं साथी, छत्तीसगढ़ द्वारा पंडो जनजाति सैला नृत्य एवं पद्मश्री अर्जुन सिंह धुर्वे एवं साथी, डिंडोरी द्वारा घोड़ी पैठाई नृत्य की प्रस्तुति दी जायेगी।