मध्य प्रदेश

मानव संग्रहालय में अक्टूबर माह के प्रादर्श का उद्घाटन — “कंडल्या/कोंडियाला : सिख योद्धाओं की गरिमा, आध्यात्मिकता और धर्मनिष्ठा का प्रतीक

 

भोपाल, 14 अक्टूबर 2025 — इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में अक्टूबर माह के प्रादर्श के रूप में “कंडल्या/कोंडियाला – सिख योद्धाओं की गरिमा, आध्यात्मिकता और धर्मनिष्ठा का प्रतीक” शीर्षक से एक विशेष प्रदर्श का उद्घाटन किया गया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि श्री जितेन्द्र पाल सिंह गिल, (प्रधान, गुरुद्वारा श्री दशमेश दरबार साहिब, आनंद नगर, भोपाल) द्वारा प्रादर्श का औपचारिक उद्घाटन किया गया।इस अवसर पर विशेष अतिथि के रूप में भाई गुरतेज सिंह, मुख्य सेवादार, गुरुद्वारा श्री अकालगढ़ साहिब, ट्रांसपोर्ट नगर, कोकटाभोजपुर तथा उनके साथीगण, भाई राजवीर सिंह, मुखी गतका ट्रेनर (मार्शल आर्ट) एवं उनके सहयोगी, तथा श्री ठाकुर लाल राजपूत, अध्यक्ष, ऑल इंडिया ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन, भोपाल श्री भूपिंदर सिंह, सचिव श्री गुरु तेग बहादुर साहिब गुरुद्वारा साकेत नगर भी उपस्थित रहे।संग्रहालय के निदेशक प्रो डा अमिताभ पांडे,ने अपने संबोधन में कहा कि “कंडल्या/कोंडियाला केवल एक युद्धक हथियार नहीं, बल्कि सिख समुदाय की उस परंपरा, शौर्य और आध्यात्मिक अनुशासन का प्रतीक है, जो समाज को आत्मसंयम, साहस और धर्मनिष्ठा का संदेश देता है।” उन्होंने यह भी बताया कि इस प्रकार के प्रादर्श संग्रहालय की “मंथली एक्ज़हिबिट” श्रृंखला के अंतर्गत भारतीय विविधता और पारंपरिक विरासत के संरक्षण एवं प्रस्तुतीकरण का माध्यम हैं।
कार्यक्रम में सिख समुदाय के लोग, दर्शक और संग्रहालय के अधिकारी एवं कर्मचारीगण भी उपस्थित रहे।—
कंडल्या/कोंडियाला – एक परिचय
कंडल्या या कोंडियाला पंजाब की पारंपरिक युद्धकला गतका में प्रयुक्त एक अनोखा हथियार है। यह लोहे या इस्पात से बना काँटेदार गोला होता है, जिसे रस्सी या ज़ंजीर से बाँधकर घुमाया जाता था। इसकी अनिश्चित गति और तीक्ष्ण कंटीली बनावट इसे एक शक्तिशाली और भयावह हथियार बनाती थी।
‘कंडाल्या’ शब्द की उत्पत्ति पंजाबी भाषा से हुई है — ‘कुंडा’ (गोलाकार रूप) और ‘याला’ (उपकरण) के मेल से बना यह शब्द पारंपरिक बुद्धिमत्ता और हथियार निर्माण की कलात्मकता का प्रतीक
इस अवसर मुख्य अतिथि श्री जितेंद्र पाल सिंह गिल जी ने बताया,16वीं–17वीं शताब्दी के दौरान यह हथियार सिख योद्धाओं द्वारा अपने शस्त्रागार में शामिल किया गया। गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा 1699 में खालसा पंथ की स्थापना के साथ ही हथियारों को धार्मिक और पवित्र स्थान प्राप्त हुआ। कंडाल्या केवल युद्ध का साधन नहीं रहा, बल्कि यह ईश्वरीय न्याय और पीड़ितों की रक्षा का प्रतीक बन गया।
19वीं शताब्दी में आग्नेयास्त्रों के प्रसार के बाद इसका युद्धक उपयोग कम हुआ, किंतु यह निहंग अखाड़ों की गतका परंपरा, धार्मिक शोभायात्राओं और होला मोहल्ला जैसे पर्वों में आज भी सजीव है। यह परंपरा आज भी सिख परिवारों में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती आ रही है, जो उनके पूर्वजों के साहस और अनुशासन की अमर गाथा को आगे बढ़ाती है।

निर्माण एवं कारीगरी
कंडाल्या के निर्माण में पंजाबी लोहारों की असाधारण धातु शिल्पकला झलकती है।
1. गोला निर्माण: ठोस लोहे का गोला (3–5 किलोग्राम) भट्टी में तपाकर बनाया जाता है।
2. काँटे जोड़ना: 8 से 16 लोहे के काँटे गोले में जड़े जाते हैं।
3. जड़ना: कांटेदार गोले को लकड़ी के डंडे या ज़ंजीर/रस्सी से जोड़ा जाता है।
4. सज्जा: सतह को चमकाकर जंगरोधी बनाया जाता है तथा धार्मिक प्रतीक जैसे “ॐकार” या “खण्डा” उकेरे जाते हैं।
यह कारीगरी न केवल धातु शिल्पियों के कौशल का प्रमाण है, बल्कि सिख धर्म में पवित्रता और अनुशासन का प्रतीक भी है।
—प्रदर्शनी की संयोजक श्रीमती गरिमा आनंद दुबे ने कोंडियाला का सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व बताया
कंडाल्या सिख योद्धाओं की वीरता, आत्मनियंत्रण और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है। गतका के अभ्यास में यह केवल हथियार चलाने की कला नहीं, बल्कि मन और शरीर के सामंजस्य का प्रतीक है। धार्मिक आयोजनों और नगर कीर्तन में इसका प्रदर्शन सामूहिक एकता और ऐतिहासिक गौरव का स्मरण कराता है।
संग्रहालय के जन संपर्क अधिकारी हेमंत बहादुर सिंह परिहार ने बताया कि,यह प्रादर्श आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाता है कि साहस और विश्वास से साधारण वस्तुओं को भी असाधारण बनाया जा सकता है। संग्रहालय के इस मासिक प्रादर्श के माध्यम से सिख समुदाय की सांस्कृतिक धरोहर को सम्मान और संरक्षण देने का प्रयास किया गया है।

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