क्या सर ढककर या टोपी आदि पहनकर, पूजन करना उचित है.. ❓❓
(इस आलेख को अंतिम लाइन तक पढने पर अद्भुत वैज्ञानिक प्रमाण भी समझने को मिलेंगे।)
आज हम आप सभी साधकों को ऐसी बात बताने जा रहे हैं जो सहजता से स्वीकार नहीं होगा, परंतु ये तथ्य वैदिक तंत्र में ध्यान रखने योग्य है।।
वैसे एक चलन ही चल पड़ी है कि साधना, पूजन , हवन, व जाप आरम्भ होते हीं रुमाल- टोपी आदि निकाल कर सर पर रख लेते हैं, और पूजन कराने वाले भी मना नहीं करते हैं “क्योंकि उनको भी इसका सही ज्ञान नहीं होता”। जबकि पूजा में सिर ढकने को शास्त्रों में निषेध है।
जबकि भोजन बनाते या करते समय अथवा शौच के समय ही सिर ढकना अनिवार्य है “जो सायद कोइ भी नहीं करता”।
ईश्वर को प्रणाम करते समय, जप-तप, ध्यान-साधना व देव पूजा में सिर खुला रखें। तभी शास्त्रोचित फल प्राप्त होगा।
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👉🏿शास्त्र पूजा-पाठ आदि कर्मों में, सर ढकने को लेकर क्या निर्देशित करते हैं ?…
1️⃣ उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।
प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥
अर्थात्- पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग्न होकर, शिखा या केश खोलकर, कण्ठ को वस्त्र से लपेटकर, बोलते हुवे, और काँपते हुवे जो जप किया जाता है, वह निष्फल होता है ।
2️⃣ शिर: प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखोऽपि वा |
अकृत्वा पादयोः
शौचमाचाँतोऽप्यशुचिर्भवेत् ( -कूर्म पुराण,अ.13,श्लोक 9)
अर्थात्– सिर या कण्ठ को ढककर , शिखा तथा कच्छ (लांग/पिछोटा) खुलने पर, बिना पैर धोये आचमन करने पर भी अशुद्ध ही रहता है (अर्थात् पहले सिर व कण्ठ पर से वस्त्र हटाये, ऄऄशिखा व कच्छ बान्धें फिर पाँवों को धोना चाहिये, फिर आचमन करने के बाद व्यक्ति शुद्ध (देवयजन योग्य) होता है।
3️⃣ सोपानस्को जलस्थो वा नोष्णीषी वाचमेद् बुधः। कूर्म पुराण,अ.13,श्लोक 10अर्ध।
अर्थात्– बुध्दिमान् व्यक्ति को जूता पहनें हुये,जल में स्थित होने पर, सिर पर पगड़ी इत्यादि धारणकर, आचमन नहीं करना चाहिये ।
4️⃣ शिरः प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते। -(कर्मठगुरूः)
अर्थात्– वस्त्र से सिर ढककर भगवान् का ध्यान नहीं करना चाहिये ।
6️⃣ उष्णीशी कञ्चुकी नग्नो मुक्तकेशो गणावृत।
अपवित्रकरोऽशुद्धः प्रलपन्न जपेत् क्वचित् ॥ (शब्द कल्पद्रुम )
अर्थात्– सिर ढक कर, सिला वस्त्र धारण कर, बिना कच्छ के,शिखा खुलीं होने पर , गले में वस्त्र लपेटकर । अपवित्र हाथों से,अपवित्र अवस्था में और बोलते हुवे कभी जप नहीं करना चाहिये ।।
7️⃣ न जल्पश्च न प्रावृतशिरास्तथा। -योगी याज्ञवल्क्यः
अर्थात्– न वार्ता करते हुवे और न सिर ढककर।
8️⃣ अपवित्रकरो नग्नः शिरसि प्रावृतोऽपि वा ।
प्रलपन् प्रजपेद्यावत्तावत् निष्फलमुच्यते ।। (रामार्च्चनचन्द्रिकायाम्)
अर्थात्– अपवित्र हाथों से, बिना कच्छ के, सिर ढक्कर जपादि कर्म जैसे किये जाते हैं, वैसे ही निष्फल होते जाते हैं ।
👉🏿 चलो जानते हैं जप-तप-पूजन व ध्यान-साधना मे खुला सर रखने को वैज्ञानिक रहस्य क्या हो सकता है ❓❓
👉🏿१- किसी भी जप, तप, ध्यान, साधना में हमारे शरीर के अन्य सभी अंगों की अपेक्षा हमारा मस्तिष्क सर्वाधिक क्रियाशील रहता है अर्थात (सर का तापमान बढ़ता है)।।
अतः सर खुला रखकर बाहरी हवा के सीधे संपर्क में रखने से सामान्य तापमान में रखा जा सकता है।। पकृउ।।
👉🏿२- किसी भी प्रकार की साधनात्मक क्रियाऐं करते समय, हमारे सूक्ष्म शरीर “कुंडलियों” से विलक्षण अदृश्य ऊर्जा एवं तरंगों का प्रादुर्भाव होता है तथा ये तरंगें (शक्तियां) ऊर्ध्वगामी होकर , ब्रह्मरंध “शिखा स्थल” की और प्रवाहित होकर , ब्रह्मांड में प्रवाहित संबंधित तरंगों (शक्तियों) से समभोग करने लगतीं हैं, तथा ब्रह्मांडीय ऊर्जा “कॉस्मिक एनर्जी” हमारी इंद्रियों को प्रदान करतीं हैं।।
अतः सर को खुला रखकर ही ब्रह्मांडीय ऊर्जा को उचित मात्रा में ग्रहण किया जा सकता है ।
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कुल मिलाकर सिर पर पगड़ी रखकर, सिले वस्त्र पहनकर , पूर्ण नग्न होकर, शिखा या केश खोलकर , गले में वस्त्र लपेटकर, शरीर से अशुद्ध रहकर, हिलते – कांपते हुऐ और बोलते हुये कभी जप-तप-साधना व हवन-पूजन-जाप आदि कर्म कदापि नहीं करना चाहिये , अन्यथा उस कर्म का उचित फल कभी प्राप्त नहीं होता है।।
वैदिक ब्राह्मणों एवं सिद्ध गुरुओं को इस बात का ज्ञान अवस्य होना चाहिऐ।।
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-:भैरवी साधक:-
राजज्योतिषी:- पं. कृपाराम उपाध्याय “बटुकेश्वर धाम वाले”
( तंत्र-ज्योतिष सम्राट)
भोपाल, मोबा:- 07999213943
🌷जय भैरवी🌷