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न स्कूल न सड़क…35 साल तक लाल आतंक का साया, खौफ इतना कि अफसर तक न आए, आज भी 1980 में जी रहा गांव

35 साल के नक्सली आतंक से जूझते-जूझते बालाघाट का केरीकोना गांव आज भी बुनियादी सुविधाओं से दूर है. 16 घरों वाला यह गांव न सड़क, न स्कूल, न आंगनवाड़ी सबसे पीछे छूट गया

बालाघाट पर करीब 35 साल लाल आतंक का साया रहा लेकिन केंद्र सरकार के नक्सलवाद को खत्म करने के लक्ष्य के बाद नीतियों बदली. फोर्स आक्रामक हुई और अब उसके परिणाम आने लगे हैं. अब उम्मीद है कि जल्द ही नक्सलियों का साया बालाघाट के ऊपर से उठ जाएगा. लेकिन जब लाल आतंक के इतिहास को देखा जाए, तो नक्सल प्रभावित गावों के हाल क्या है. जी हां आज भी वह 35 साल पीछे ही रहे गए हैं. सरकार और नक्सलियों की लड़ाई के बीच वो गांव पिस गए, जिन्हें आज के भारत के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए था.

लोकल 18 आदिवासियों और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों के लिए काम करने वाले संगठन तथागत फाउंडेशन के साथ उस गांव पहुंची, जहां पर कभी नक्सली अक्सर आते थे या यूं कहें कि नक्सलियों को डेरा यही रहता था. गांव का नाम है केरीकोना, आपको भी इस गांव की कहानी सुननी चाहिए…
16 घर वाला गांव, जहां कुछ भी नहीं
बालाघाट के दक्षिण बैहर में ज्यादातर गांव पहाड़ों और दर्रों की बीच बसे हैं. कुछ गांव टोली में बसे हुए हैं. उन गांवों में बहुत कम घर और परिवार बसे हुए है. उसी में से एक गांव केरीकोना है, जहां पर सिर्फ 16 घर है. अगर आप आज भी उस गांव में जाना चाहें तो अच्छी सड़क के बाद एक लंबा कच्चा और पथरीला रास्ता तय करना पड़ता है. वहीं, गांव आओ तो अचानक दिखता है एक लकड़ी का बना पुल, जिस पर बांस की बनी एक टाट रखी है. दरअसल, उस गांव में जाने के लिए सड़क तो नहीं है लेकिन गांव में इंटर होने के लिए एक छोटा सा रास्ता है. उस पर भी पुल न था, सालों तक एक पुल की मांग की  लेकिन वह नहीं बना ऐसे में गांव वालों ने मिलकर लकड़ी का एक पुल का निर्माण किया है. उस पुल से चौपहिया वाहन नहीं जा सकता था. ऐसे में हमें अपनी गाड़ी को गांव से 100 मीटर दूर खड़े कर पैदल जाना पड़ा.

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