-राकेश कुमार वर्मा
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने हाल ही में साल 2019 और 2024 के बीच चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग को सौंपे गये मौजूदा सांसद और विधायकों के 4809 हलफनामो में से 4693 की जांच की रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमे महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामलों का सामना कर रहे 16 सांसदों व 135 विधयकों को चिन्हित किया गया है जिनमें से अधिकांश के विरूद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के तहत दस साल के कठोर दंड का प्रावधान है जिसे आजीवन कारावास तक बढाया जा सकता है। इनमें से 2 सांसद तथा 14 विधायक है ।आरोप में एक ही पीडि़ता के खिलाफ बार बार अपराध की घटनाये शामिल हैं जो अपराध को संगीन बताती हैं। रिपोर्ट के अनुसार सबसे अधिक 54 सांसद और विधायक भाजपा के हैं जबकि कांग्रेस के 23 और तेलगूदेशम के 17 सदस्य अपराध प्रवृति के हैं।
यह रिपोर्ट कानून बनाने और उसका पालन करने के प्रति वचनबद्ध सदस्यों के चयन को लेकर अनेक प्रश्न खड़े करती है। महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित संवैधानिक कर्तव्यों की जिम्मेदारी के लिए आस्था जताने वाले नागरिकों के विश्वास पर क्या ऐसे सदस्यों की आत्मा सदन में पहुंच कर कभी मूल्यों के प्रति उन्मुख हुई। इसकी वास्तविकता समय-समय पर उजागर होते समाचार मसलन जनहित से जुड़े प्रश्न के बदले पैसे मांगने, सदन को अखाड़ा बनाने, पोर्न वीडियो देखने, शयन आरामगाह से स्पष्ट होते हैं। बावजूद इसके अप्रत्याशित रूप से ताउम्र वेतन भत्ते पेंशन लेने के अधिकारी हैं।जो आम नागरिकों के लिए सबसे बड़ा खतरा हो, उसी की सुरक्षा में पूरा तंत्र झोंक दिया जाता है। सर्वाधिक व्ययसाध्य चयन की इस बेलगाम प्रणाली पर नियंत्रण न रख पाने में चुनाव आयोग सर्वोच्च न्यायालय और कानून की अपनी अपनी विवशतायें है। दोष सिद्ध होने पर दंड से बच निकलने पर भी इनका जमीर उन पीड़ितों से सहानुभूति बटोरकर महिमा मंडित होने में सफल होता है जिस अपराध में इनकी संलिप्तता होती है।
रिपोर्ट की वास्तविकता से यह तथ्य प्रकट होता है कि भयमुक्त समाज की स्थापना सुचिता, अनुशासन और मर्यादा के लक्ष्य को लेकर राजनीति में आई भारतीय जनता पार्टी जैसी पार्टियां दागी और आपराधिक प्रवृत्ति के चरम पर है। यह स्वच्छ व नैतिकतापूर्ण राजनीति की विसंगति का वीभत्स स्वरूप है जिससे समाज को सतर्क रहने की आवश्यकता है। इसी तरह राजनीतिक शुचिता का दम भरने वाली आम आदमी पार्टी ने आपराधिक पृष्ठभूमि के लगभग तेरह फीसद प्रत्याशियों को अपना उम्मीद्वार बनाया। उसके बत्तीस में से छब्बीस उम्मीदवारों पर गंभीर अपराधिक मुकदमे दर्ज हैं।
ऐसे में एक लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता द्वारा चुनकर आये प्रतिनिधियों का समाज और लोगों की मानसिकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उन्हें अपराध का भय नहीं होता क्योंकि यदि कुयोगवश कभी कानूनी शिकंजे में फंस जाएं तो भी उनमें रसूख के बल पर निजात पाने का विश्वास होता है। बीते कई सालों में देश के अहम राजनीतिक दलों ने ऐसे उम्मीदवारों को भी टिकट दिए, जिन पर बलात्कार जैसे संगीन अपराध के आरोप हैं। इससे अपराधिक तत्वों को प्रश्रय मिला है । राजनीतिक दलों का लक्ष्य प्रत्याशियों का चरित्र नहीं, अपितु उनके जीतने की संभावना पर रहता है, इसलिए वे दबंग किस्म के लोगों को ज्यादा अनुकूल पाते हैं। यही स्थिति धनबल का है। जिसके पास अधिक धन है, जो किसी भी राजनीतिक दल को आर्थिक रूप से मदद करने में सक्षम हैं, उन्हें आसानी से राजनीतिक दल चुनाव का टिकट दे देते हैं। अक्सर गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वालों के पास धनबल भी अधिक होता है और राजनीतिक संरक्षण पाने की मंशा से जीत की संभावना वाले राजनीतिक दल का दामन थाम लेते हैं। राजनीति में आपराधिक छवि के लोगों की बढ़ती पैठ इसलिए चिंता का विषय है कि उनके सत्ता में आने से न सिर्फ उन पर चल रहे मुकदमों में न्याय प्रभावित होता, बल्कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना चुनौती बना रहता है। फिर सबसे बड़ा लोकतांत्रिक सैद्धांतिक सवाल सदा अनुत्तरित रह जाता है
हाल ही में कोलकाता जैसे अपराध से समाज को मुक्त करने में कानून की बात बेमानी साबित होगी । सच तो यह है कि बलात्कार जैसी पीड़ा से गुजरने वालों के लिए इंसाफ की लड़ाई तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक कि बार-बार सामने आने वाली इन जघन्य वारदातों के पीछे की असल वजह को न समझा जाए, क्योंकि जब तक इन अपराधों के पीछे की वजह को पूरी तरह समझ कर इनके समाधान की ओर कदम नहीं बढ़ाया जाता, बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों को सिर्फ कठोर दंड के सहारे रोक पाना टेढ़ी खीर साबित होगी।