ब्रह्माकुमारीज़ संस्थान की पूर्व मुख्य प्रशासिका दादी प्रकाशमणि जी का स्मृति दिवस विश्व बंधुत्व दिवस के रूप में मनाया गया
दादीजी के प्रभावशाली नेतृत्व में ब्रह्माकुमारीज एक छोटे से परिवार से विश्व स्तरीय आध्यात्मिक संगठन में हुई परिवर्तित: बी.के. डॉ. रीना

ब्रह्माकुमारीज़ की पूर्व मुख्य प्रशासिका राजयोगिनी दादी प्रकाशमणि की 17वीं पुण्यतिथि रविवार को भारत सहित विश्व के 137 देशों में विश्व बंधुत्व दिवस के रूप में मनाया गया। संस्थान के आठ हजार सेवाकेंद्रों पर अलसुबह से योग-साधना के माध्यम से लाखों भाई-बहनें अपने श्रद्धासुमन अर्पित करेंगे। मुख्यालय शांतिवन में होने वाले मुख्य पुष्पांजली कार्यक्रम में शामिल होने के लिए देशभर से दस हजार से अधिक लोग पहुंचे। यहां अलसुबह 3 बजे से विशेष योग-साधना की गई। इसके बाद सुबह 7 बजे सामूहिक सत्संग (मुरली क्लास) के बाद सुबह 8 बजे मुख्य प्रशासिका राजयोगिनी दादी रतनमोहिनी, महासचिव राजयोगी बीके निर्वैर भाई, संयुक्त मुख्य प्रशासिका राजयोगिनी बीके मुन्नी दीदी दादीजी के स्मृति स्थल प्रकाश स्तंभ पर पहुंचकर पुष्पांजली अर्पित की। सुबह 11 बजे से दादी की याद में परमात्मा को विशेष भोग लगाकर वरिष्ठ पदाधिकारी दादी जी के साथ के अपने अनुभव साझा किए। दादीजी की याद में बने प्रकाश स्तंभ को फूलों से सजाया गया।
38 साल रहीं मुख्य प्रशासिका-
ब्रह्माकुमारीज़ के साकार संस्थापक प्रजापिता ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने के बाद वर्ष 1969 में आपने इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय की बागडोर संभाली। वर्ष 2007 तक 38 साल मुख्य प्रशासिका के रूप में सेवाओं को विश्व पटल तक पहुंचाया। आपकी दूरदृष्टि, कुशल प्रशासन, स्नेह, विश्व बंधुत्व की भावना और परमात्म शक्ति का ही नतीजा है कि विश्व के 137 से अधिक देशों में भारतीय पुरातन संस्कृति अध्यात्म और राजयोग मेडिटेशन का संदेश पहुंचाया। साथ ही भारत के कोने-कोने में सेवाकेंद्रों की स्थापना की गई। आपके त्याग, लगन और परिश्रम का परिणाम है कि आपके सान्निध्य में ही 40 हजार से अधिक ब्रह्माकुमारी बहनें समर्पित हो चुकी थीं। वे बाल्यकाल में ही इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय के सम्पर्क में आई। जो उस समय ओम मंडली के नाम से जाना जाता था। उनके एक झलक मात्र से ही निराश व्यक्तियों के जीवन में आशा की किरण प्रस्फुटित हो जाती थी। ऐसी महान विभूति का जन्म अविभाज्य भारत के सिंध प्रांत में वर्ष 1922 में हुआ था, जो कि अब पाकिस्तान में है। अपनी नैसर्गिक प्रतिभा, दिव्य दृष्टि और मन-मस्तिष्क के विशेष गुणों की सहज वृत्ति के कारण वे 14 वर्ष की अल्पायु में ही इस संस्था के सम्पर्क में आईं। 1936 में अपना जीवन परमात्म कार्य एवं मानव सेवा के लिए समर्पित कर दिया।