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पितरों के लिए श्राद्ध- तर्पण का वैदिक शास्वत उल्लेख…

पितरों के लिए श्राद्ध- तर्पण का वैदिक शास्वत उल्लेख…

अपने पित्रों के मोक्ष के लिए सर्वश्रेष्ठ कर्म करने वाले सूर्यवंशी, भागीरथ सहित उनकी कई पीढ़ियां अपने पितरों के तर्पण हेतु, गंगाजल को धरती पर लाने और उसे गंगासागर तक ले जाने के हेतु, निरंतर कठिनतम तपस्या में ही लगी रहीं एवं अंततः महाराज भागीरथ की तपस्या ये गंगा का अवतरण तथा गंगासागर तक पहुंचना हुआ, और उस जल से तर्पण कर, भागीरथ ने अपने 60 हजार श्रापित पितरों को मुक्ति दिलाई।।
तत्पश्चात सीता जी द्वारा भी दशरथ जी के श्राद्ध पिंडदान का भी वर्णन है जो स्त्री द्वारा किया गया प्रथम श्राद्ध कर्म था ।।
कुछ खास जानकारी श्राद्ध तर्पण पिंडदान…
*”यदाहारा भवन्त्येते, पितरो यत्र योनिषु।*
*तासु तदाहारः श्राद्धा-न्नेनोपतिष्ठति।।”*
(गरुड़०,धर्म० १०/१९)
अर्थात– “पितर जिस योनि में होते हैं, उस योनि में जिस प्रकार के आहार को ग्रहण करने वाले होते हैं, श्राद्ध के द्वारा वंहा उन्हें उसी प्रकार का आहार प्राप्त होता है।।”
गर्ग संहिता- बृन्दावन खण्ड अध्याय २६ के अनुसार —
*”यज्ञं दानं जपं तीर्थं , श्राद्धं वै देवतार्चनम्।*
*तर्पणं मार्जनं चान्यन्न कुर्यात् तुलसी बिना।।”*
*”बिना श्रीं तुलसीं विप्रा, येऽपि श्राद्धं प्रकुर्वते।*
*वृथा भवति तच्छ्राद्धं, पितृणां नोऽपि तिष्ठति।।”*
अर्थात– “तुलसी के बिना यज्ञ, दान, जप, तीर्थ, श्राद्ध, देवताओं का पूजा, तर्पण, मार्जन और अन्य सभी कर्म नहीं करना चाहिए।।”
“जो भी श्रीतुलसी के बिना श्राद्ध करते हैं, वह श्राद्ध व्यर्थ हो जाता है।।
******************
इसीलिए गृहस्थों के लिए शास्त्रीय दिग्दर्शन; तथा श्राद्ध कर्म से लाभ —
*”कुर्वीत समये श्राद्घं , कुले कश्चिन्न सीदति ।*
*आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं , कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।।*
*पशून् सौख्यं धान्यं, प्राप्तयात् पितृपूजनात् ।।”* (गरुड़पुराण १०/५७,५८)
भावार्थ है– “समयानुसार श्राद्ध, तर्पण करने से कुल में कोई दुखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करने पर मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख, धन- संपत्ति, स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करता है।।” अतः पितरों से आशीर्वाद पाने के लिए श्राद्ध-पिंडदान-तर्पण अवश्य करना चाहिए।।

*श्राद्ध के बारे में पौराणिक तथ्य :* ————————————
प्राचीन काल में ब्रह्माजी के पुत्र हुए महर्षि अत्रि। उन्हीं के वंश में भगवान दत्तात्रेय जी का आविर्भाव हुआ। दत्तात्रेय जी के पुत्र हुए महर्षि “निमि” और निमि के एक सूंदर- सुशील पुत्र हुआ “श्रीमान्”। किन्तु कठोर तपस्या के बाद उसकी मृत्यु होने पर महर्षि निमि को पुत्र शोक के कारण बहुत दुख हुआ। अपने पुत्र की उन्हों ने शास्त्रविधि के अनुसार अशौच (सूतक) निवारण की सारी क्रियाएं की। फिर चतुर्दशी के दिन उन्हों ने श्राद्ध में दी जाने वाली सारी वस्तुएं एकत्रित की और अमावस्या (महालया) को उन्होंने पुत्र का श्राद्ध करने का विचार किया।।
उनके पुत्र को जो- जो भोज्य पदार्थ प्रिय थे और साथ- साथ शास्त्रों में वर्णित पदार्थों से उन्हों ने श्राद्ध- भोजन तैयार किया। इसके बाद सात ब्राह्मणों को बुलाकर उनकी यथाविधि पूजा- प्रदक्षिणा कर, उन्हें कुशासन पर बिठाया एवं प्रस्तुत भोजन को श्रद्धा के साथ परोसा। फिर अपने सामने भी कुश बिछाकर पूरी सावधानी और पवित्रता से अपने पुत्र का नाम और गोत्र का उच्चारण करके कुशों पर पिण्डदान किया। ऐसे श्राद्ध करने के बाद भी उन्हें बहुत संताप हो रहा था कि– ”वेद में पिता- पितामह आदि के श्राद्ध का विधान है; मगर मैंने सिर्फ पुत्र के निमित्त किया है!!”
उन्होंने अपने वंश के प्रवर्तक महर्षि अत्रि का ध्यान किया, तो महर्षि अत्रि जी वहां आ पहुंचे। उन्हों ने महर्षी निमि को सान्त्वना देते हुए कहा– ‘‘डरो मत, ब्रह्माजी द्वारा श्राद्ध विधि का जो उपदेश किया गया है, उसी के अनुसार तुमने श्राद्ध किया। ब्रह्माजी के उत्पन्न किये हुए कुछ देवता ही पितरों के नाम से प्रसिद्ध हैं; उन्हें ‘उष्णप’ कहते हैं। श्राद्ध में उनकी पूजा करने से श्राद्धकर्ता के पिता- पितामह आदि पितरों का नरक से उद्धार हो जाता है, जो तुमने किया है।” निमि जी सन्तुष्ट हो गए।।
*अतः पुराण के अनुसार सबसे पहले श्राद्ध कर्म करने वाले थे महाभारत कालीन महर्षि “निमि”।*
उसके बाद तो सभी महर्षि उनको अनुशरण कर शास्त्र विधि के अनुसार श्रद्धा से पितृयज्ञ (श्राद्ध) करने लगे। बाद में कारण वशः अग्नि देवता को भी भोज्य- भाग देने के साथ ऋषि- पिण्डदान करते हुए तीर्थ के जल से पितरों का तर्पण भी विधिमत् संयोग किया गया।
और धीरे- धीरे चारों वर्णों के श्रद्धालु लोगों में श्रद्धा से एकोद्दिष्ट तथा पार्वण श्राद्ध में पितरों और देवताओं को पिंडान्न प्रदान करने की धार्मिक रीति है।।
*क्या “गया जी” में पिंडदान करने के बाद, पिंडदान-तर्पण या श्राद्ध करना चाहिए….❓❓*
इस प्रश्न को समझने के लिए समझना पड़ेगा कि श्राद्ध पिंडदान कहां कहां करना होता है:-
1️⃣- पहला पिंडदान कूप या बावड़ी पर ।
2️⃣- दूसरा पवित्र नदियों अथवा तालाब पर।
3️⃣- तीसरा उज्जैनीतीर्थ “उज्जैन”, -कुशावर्ततीर्थ “नाशिक”, – अथवा ब्रह्मतीर्थ “पुष्कर” में ।
4️⃣- चतुर्थ सोरावर्त “सोरों उ. प्र.” में।
5️⃣- पंचम गयातीर्थ गया जी “बिहार” में ।
6️⃣- षष्टम देवतीर्थ “हरिद्वार” में ।
7️⃣- और सप्तम ब्रह्मकपाल तीर्थ “बद्रीनाथ के पास” ।।
इसके बाद भी गंगासागर में तर्पण किया जा सकता है।।
*(अतः जब तक ब्रह्मकपाल तीर्थ में पिंडदान ना किया जाए, तब तक अन्य वर्णित तीर्थों में क्रमशः पिंडदान, तर्पण, श्राद्ध करते ही रहना चाहिए।)*
अक्सर लोग कहते हैं कि हम पूर्वजों को गया जी में छोड़ आऐ हैं, तो अब श्राद्ध पिंडदान तर्पण नहीं करते….. तो सबसे पहले सोचिए “क्या पूर्वज क्या पशू थे जिन्हें छोड आऐ, अरे वो हमारे देव हैं जिन्हें छोडा नहीं जाता, पकड के रखना होता है ताकि वो हमारी रक्षा करें एवं उनका आशीर्वाद निरंतर हमारे साथ रहे।
*इसलिए सारे तीर्थों में पिंडदान करने के बाद भी पित्रों का श्राद्ध व तर्पण तो हमें सदैव करते ही रहना होता है (सिर्फ ब्रह्मकपाल में पिंडदान के बाद , फिर कहीं पिंडदान भर करने की आवस्यकता नहीं होती) परंतु पित्रों का श्राद्ध व तर्पण करते रहना तो हमारा वैदिक धर्म, पित्रों पर श्रद्धा और पैत्रिक परंपरा हैं जिसका निर्वहन तो निरंतर अनिवार्य है।*
जिस परिवार में नित्य अपने पित्रों का स्मरण, तर्पण, धूपादि और उनके निमित्त अन्नादि का दान होता है उस परिवार में सदैव सुख-समृद्धि-शान्ती रहती है।।

-:भैरवी साधक :-
*राज-ज्योतिषी:- पं. कृपाराम उपाध्याय*
(वैदिक तंत्र-ज्योतिष सम्राट एवं तत्त्ववेत्ता)
*भोपाल, फोन. 7999213943*
🙏जय भैरवी🙏

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