सब्जियों की बल्ले बल्ले – लगा रही हैं चौके छक्के : विपिन कोरी
बीते छह आठ महीनो से चुनावों के सर्द–गरम मिजाज़ का रसपान करने में व्यस्त देश की अलबेली जनता अभी से थोड़ी नरवश सी दिखाई पढ़ रही है। बीते विधान सभा चुनाव हों या अभी ताजे–ताजे लोकसभा चुनाव घर–घर में चूल्हे पर कढ़ाई रोज चढ़ी, किसी के यहां होली, किसी के यहां दिवाली, किसी के यहां मीठी सिवैया तो किसी के यहां बकरीद मनी, इसमें जनता और नेताओं, दोनों की खूब हुई तनातनी, जिसकी सरकार बनी उसकी मौज और जिसकी नहीं बनी उसकी मौत, बेमौत हुई। इस चुनावीं रेलमपेल में दो जून की रोटी तक नसीब नहीं होने वालों की जूतमपेल हुई, जो लाल की पीते थे उन्हें ब्लैकफोर्ट मिली और जो जमी पर सोते थे उन्हें नई नवेली दुल्हन की तरह सजी सेज मिली। अपना भविष्य लोकतन्त्र के हवाले कर अब देश की जनता को अपना घर परिवार चलाने की याद आने लगी है अपनी जिम्मेदारियां, पतियों को पत्नियों की रसोई से चितकारियां, बेटे को बूढ़े मां बाप को खिलाने दो वक्त की रोटियां, मसालेदार खाना खाने को तरस रहे हैं बेटे–बेटियां। क्योंकि बाजार में जाओ तो एसा प्रतीत होता है कि आलू, प्याज, टमाटर, गोभी, टिंडे, भिंडी, गिलकी, लौकी, शिमला, कद्दू और बरबट्टी क्रिकेट के मैदान में फील्डिंग कर रहे हो और धनिया–मिर्ची बैटिंग और देश की जनता झूम झूम कर कह रही है, वाह क्या बात है *”सब्जियों की बल्ले बल्ले–लगा रही हैं चौके छक्के।”
विपिन कोरी
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